प्रमेह (मधुमेह) (Diabetes Mellitus)

प्रमेह (मधुमेह) (Diabetes Mellitus)



diabetes-mellitus-parmeh-rog-madhumeh

व्याधि परिचय-

आचार्य चरक तथा आचार्य सुश्रुत ने प्रमेह रोग का स्वतन्त्र अध्याय में विस्तृत
रूप से वर्णन किया है। प्रमेह मिथ्या आहार विहार से उत्पन्न विकृत त्रिदोषों के द्वारा होने
वाली विशिष्ट लक्षण समूह वाली जटिल व्याधि है। आचार्यों ने इसे महागद माना है।
लक्षणों के आधार पर मधुमेह रोग का सामञ्जस्य आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में वर्णित
Diabetes mellitus नामक रोग से किया जा सकता है।

निरूक्ति/व्युत्पत्ति-

  1. प्रमेह-प्रमेह शब्द प्र उपसर्गपूर्वक मिहक्षरणे धातु से घञ् प्रत्यय करने पर बना है जिसका अर्थ है प्रभूत मात्रा में विकृतमूत्र का त्याग करना।
  2. मधुमेह-'मधु-मेह' 'मेहेषु उच्च मधु इव मधुरं मेहति'। अर्थात् मेहों (प्रमेहों) में जो उच्च है, मधु के समान मधुर मूत्र त्याग करता है वह मधुमेह है।

परिभाषा-


  1. प्रमेह-बार-बार और प्राय: गंदले मूत्र का त्याग प्रमेह कहलाता है।
  2. मधुमेह-जिस व्याधि में रोगी मधु के समान गुण व वर्ण का मूत्र अथवा मधुर रस युक्त मूत्र का क्षरण करता है उसे मधुमेह रोग कहते हैं.

प्रमेह-

  1. मेह
  2. प्रमीढ़ा
  3. बहुमूत्रता
  4. मूत्रदोष

मधुमेह-

  1. क्षौद्रमेह
  2. मधुमेह
  3. ओजोमेह

निदान-

प्रमेह रोग (मधुमेह) के निम्न निदान वर्णित किये गये हैं-
१. सुखपूर्वक गद्देदार आसन पर बैठना
२. सुखपूर्वक शयन करना
३. दधि, ग्राम्य, जलीय एवं आनूप मांस का अतिमात्रा में सेवन
४. अति दुग्ध सेवन
५. नूतन अत्र तथा नूतन जल (वर्षा ऋतु का जल) का अत्याधिक सेवन
६. गुड़ के विकार यथा खांड, मिश्री, मिठाई का अति सेवन
७. कफवर्धक पदार्थों का अतिसेवन
८. दिवास्वप्न, अव्यायाम तथा आलस्य
९. शीत, स्निग्ध, मधुर तथा मेद्य पदार्थों का अति सेवन
१०. सहज एवं कुलज निदान
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सम्प्राप्ति-

सामान्य सम्प्राप्ति-निदानों के अत्यधिक सेवन से प्रकुपित वात, पित्त
तथा कफ दोष मूत्राशय में जाकर मूत्र को दूषित कर स्वलक्षणों वाले वातज/पित्तज तथा।
कफज प्रमेह की उत्पत्ति करते हैं।

प्रमेह के दोष-दूष्य-

प्रमेह में तीन दोष (वात, पित्त, कफ) तथा दस दूष्य दूषित होते हैं जो निम्न प्रकार हैं-
१. मेद
३. शुक्र
५. लसिका
२. रक्त
४. वसा
६. मांस
७. मज्जा
८. रस
९. अम्बु
१०. ओज

सम्प्राप्ति घटक-


  • दोष - कफ प्रधान त्रिदोष
  • दृष्य - रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, शुक्र, धातु, वसा, अम्बु, ओज, लसिका
  • स्रोतस - मेदोवह, मूत्रवह
  • स्रोतोदुष्टि - संग तथा अति प्रवृत्ति
  • संचार - रसायनी द्वारा
  • अधिष्ठान - बस्ति, सर्वशरीर
  • अग्नि - धात्वाग्निमांद्य
  • उद्भव - आमपक्वाशयोत्थ
  • स्वभाव - चिरकारी
  • साध्यासाध्यता - याप्य/असाध्य

प्रमेह रोग के अन्य भेद-

आचार्य सुश्रुत मतानुसार'-

१. सहज प्रमेह (Hereditory diabetes)
२. अपथ्य निमित्तज प्रमेह (Acquired diabetes)

आचार्य चरक मतानुसार-

२. कृशप्रमेही (Lean diabetic)
१. स्थूल प्रमेही (Obese diabetic)

आचार्य वाग्भट मतानुसार-


२. दोषावृत जन्य प्रमेह
१. धातुक्षय जन्यप्रमेह

पूर्वरूप-

आचार्यों ने प्रमेह के निम्न पूर्वरूपों का वर्णन किया है-
१. अति स्वेद (Excessive perspiration)
२. शरीर से विस्रगन्ध आना (Foul odour of body)
३. शिथिलाङ्गता (Looseness of the body parts)
४. शय्यासन स्वप्न सुखरतिश्च अर्थात् बैठने व सोने की अधिक कामना
५. घनाङ्गता
६. नेत्र, कर्ण, जिह्वा, दन्त के मलों की अधिकता
७. केश व नाखून की अति वृद्धि
८. तालु, कण्ठशोष
९. शीतल द्रव्यों की अधिक कामना
१०. मधुरास्यता (Sweet taste of mouth)
११. शरीर व मूत्र में चीटियों का लगना १२. आलस्य (Lassitude)
१३. पिपासाधिक्य (Polydypsia)
१५. सर्वाङ्ग शून्यता
१४. शरीर की अति चिक्कणता
१६. हस्तपाद सुप्तता
१८. शरीर में भारीपन
१७. हस्तपाद तथा तल दाह
१९. श्वास कृच्छ्रता
२०. तन्द्रा
२२. केशों का जटिलीभाव
२१. अवसाद
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लक्षण-

I. सामान्य लक्षण'-विभिन्न आचा्यों ने प्रमेह के सामान्य लक्षण निम्न प्रकारवर्णित किये हैं-

१. प्रचुर मात्रा में तथा प्रभूत मात्रा में मूत्र निर्गमन (Polyuria)
२. आविल मूत्रता (Turbid Urine)
३. मूत्र का मक्षिकाक्रान्त होना
४. श्वेत तथा घन मूत्र की प्रवृत्ति
५. अकस्मात् मूत्र निर्गमन (Bed wetting)
६. शरीर जाड्यता (Stiffness of the body)

II. विशिष्ट लक्षण-

कफज प्रमेह के लक्षण-

कफज प्रमेह के भेदों के निम्न लक्षण वर्णित किये गये हैं-
१. उदकमेह (Diabetes Insipidus)-स्वच्छ, अधिक श्वेत, शीतल तथा गन्धरहित, जल की तरह मूत्र त्याग।
२. इक्षुबालिका रसमेह (Anumentary G|ysuria)- मधुर, शीत, आविल तथा इक्षुरस के समान मूत्र त्याग।
३. सान्द्रमेह (Phosphaturia) - कफ प्रकोप के कारण पात्र में रखा हुआ। जिसका बासी मूत्र गाढ़ा हो जाता है उसे सान्द्रमेही कहते हैं।
४. सान्द्रप्रसाद मेह (Phosphaturia) -जब कफ प्रकोप के कारण पात्र में रखा बासी मूत्र सान्द्र तथा कुछ निर्मल होता है तब उसे सान्द्र प्रसाद मेह कहते हैं।
५. शुक्लमेह (Chyluria) - चावल के आटे के वर्ण का बार-बार मूत्र त्याग।
६. शुक्रमेह (Spermaturia)- शुक्र के समान अथवा शुक्र मिले हुए मूत्र का बार-बार त्याग।
७. शीतमेह (Renal Glysuria) - अत्यन्त मधुर एवं शीतल मूत्र का बार-बार त्याग।
८. सिकतामेह (Crystalluria)- मूत्रगत दोषों का बालू के छोटे-छोटे कणों के रूप में मूत्र मार्ग से निकलना।
९. शनैम्मेह (Frequency)-मन्द, वेगरहित, कठिनता से मूत्रत्याग।
१०. आलालमेह' (AIlbuminuria)-तन्तुवत् बँधे हुए तार से युक्त पिच्छिल मूत्र का त्याग।

पित्तज प्रमेह के लक्षण-

विभिन्न प्रकार के पित्तज प्रमेहों के लक्षण निम्न प्रकार हैं-
(i) क्षारमेह (Alkaline Urine) - गन्ध, वर्ण, रूप तथा स्पर्श में क्षार के समान मूत्र त्याग।
(ii) कालमेह' (Blackish/Haematuria)- कृष्ण तथा उष्ण मूत्र त्याग।
(ii) नीलमेह (Bluish/Indicouria) - चाषपक्षी (नीलकण्ठ) के पंख के समान वर्ण वाले, अम्ल मूत्र का त्याग।
(iv) रक्तमेह/लोहितमेह/शोणितमेह (Frank Haematuria)- विस्त्र (आमगन्धी), लवण,. उष्ण तथा रक्तवर्णी मूत्र त्याग।
(v) मांजिष्ठमेह (Haemoglobinouria)- मञ्जिष्ठा के क्वाथ के वर्ण के समान मूत्र त्याग।
(vi) हारिद्रमेह (Biliuria) - हारिद्रा वर्णी मूत्र त्याग। वातज प्रमेह के लक्षण

विभिन्न प्रकार के वातज प्रमेह के लक्षण निम्न प्रकार वर्णित किये गये हैं-

(i) वसामेह (Chyluria/Lipiduria) - वसा मिला हुआ या वसा के समान मूत्र त्याग।
(ii) मज्जामेह (Pyuria/Chyluria)- मज्जायुक्त मूत्र का निकलना।
(iii) हस्तिमेह (Polyuria with Incontinence)- मतवाले हाथी के समान अधिक मात्रा में तथा बार-बार मूत्र त्याग।
(iv) मधुमेह/क्षौद्रमेह (Diabetic Glycosuria) - कषाय, मधुर, पाण्डु एवं रूक्ष मूत्र का त्याग।
सापेक्ष निदान-मधुमेह का सापेक्ष निदान इक्षुबालिका रसमेह एवं शीतमेह से किया जा सकता है।

साध्यासाध्यता-

१. समक्रिय होने से कफज प्रमेह साध्य होते हैं अर्थात् समान गुण वाले मेद के आश्रय होने से, कफ की प्रधानता से तथा दोष दूष्यों की समान चिकित्सा से दसों कफज प्रमेह साध्य होते हैं।
२. विषम क्रिय होने से पित्तज प्रमेह याप्य होते हैं। दोष व दष्य में से एक की चिकित्सा दूसरे के विरूद्ध होती है।
३. दोष व दूष्य की चिकित्सा विरुद्ध होनेसे वातज प्रमेह असाध्य होते हैं।
४. सहज व कुलज प्रमेह असाध्य होते हैं।
५. उपद्रवों से युक्त प्रमेह असाध्य होता है।

उपद्रव-

आचार्य चरक मतानुसार प्रमेह रोग के निम्न उपद्रव उत्पन्न हो सकते हैं-
१. तृष्णा (Polydypsia)
२. अतिसार (Diarrhoea)
3. दाह (Burning sensation)
४. दौर्बल्य (Generalised weakness)
५. अरोचक (Anorexia)
६. अविपाक (Indigestion)
७. दुर्गन्ध (Foul smell)
८. पूतियुक्त पिडिकाएँ (अलजी, विनता, विद्रधि, शराविका, कच्छपिका, जालिनी, सर्षपी)।

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