षडऋतु में सबसे पहले काल के बारे में बताया गया है। काल का अर्थ है Time .
काल ऐश्वर्यशाली और स्वयम्भू अर्थात किसी से उत्पन नहीं हुआ है तथा आदि , मध्य और अंत से रहित है , जिसका मतलब है न उसके प्रारम्भ का न उसके मध्य का और न उसके समाप्त होने का कोई ज्ञान है। मधुरादि ६ रासो का तथा प्राणियों का जीवन और मरण काल के ही आधीन है। वह काल कभी नहीं ठहरता है। इसलिए इसे काल कहते है।
मघादि बारह मास (month ) बताये गए है। दो दो मास की एक एक ऋतू होती है। इस तरह १२ मास में ६ ऋतुए बनती है। उनके नाम शिशिर , वसंत , ग्रीष्म , वर्षा, शरद और हेमंत है।
जो व्यक्ति यह जानता है की किस ऋतु में कैसा आहार विहार करना चाहिए उसे ही आहार का फल प्राप्त होता है। यदि वह यह नहीं जानता की किस ऋतु में कौन सा अन्ना खाना चाहिए तो मात्रा पूर्वक आहार करने पर भी उसे आहार का फल प्राप्त नहीं हो सकता।
शीत , उष्ण और वर्षा लक्षणों वाली इन ऋतुओं के चन्द्र और सूर्य के काल विभाग करने के गुण से दक्षिण और उत्तर ऐसे दो 'अयन ' होते है। उनमे से वर्षा शरद और हेमंत ऋतू के समय को 'दक्षिणायन ' कहते है। दक्षिणायन की वर्षादि ऋतुओं में भगवान् चंद्रमा क्रमशः बलशाली होते है तथा अमल लवण और मधुर रस बलशाली होते है। सभी पराणियों का बल भी उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। शिशिर , वसंत और ग्रीष्म के समय को 'उत्तरायण ' कहते है। इन ऋतुओं में भगवान् सूर्य बलशाली होते है। कटु , तिक्त और कषाय रस बलशाली होते हैं और उत्तरोतर सर्व पराणियों का बल क्षीण होता है।
दक्षिणायन को 'विसर्ग काल ' कहते है। चन्द्रमा के शीतल होने से मधुर , अमल और लवण रस पुष्ट होकर पराणियों का बल बढ़ते हैं।
उत्तरायण को 'आदान काल कहते हैं। सूर्य अपनी तीव्र किरणों से सम्पूर्ण जगत के जल , पृथ्वी , वृक्ष , मनुष्य सभी प्राणियों के स्नेह को खींच लेता है इसलिए इसे 'आदान ' कहते है।
चन्द्रमा पृथिवी को अपनी शीत किरणों से आद्र रखता है और सूर्य अपनी उष्ण किरणों से सूखता है। तथा चन्द्रमा और सूर्य दोनों का आश्रय लेकर वायु प्रजा का पालन करता है। वायु योगवाही होने से चन्द्रमा और सूर्य दोनों के कार्य में सहयोग देती है।
इन दोनों दक्षिणायन तथा उत्तरायण का मिल कर एक वर्ष बनता है। ऐसे पांच वर्ष मिलकर 'युग ' कहलाते हैं। निमेष से लेकर युग तक चक्र के समान परिवर्तन शील यह कालचक्र कहलाता है।
शीघ्र याद करने के लिए आदान तथा विषर्ग काल में बल किस प्रकार घटता बढ़ता रहता है , इसे नीचे चित्र में स्पष्ट किया गया है।
यंहा दोषों के संचय , प्रकोप और प्रशमन निमित से वर्षा ,शरद, हेमंत , वसंत , ग्रीष्म और प्रवृत ये छः ऋतुएँ होती है और भाद्रपदादि दो - दो मासों को मिलकर इनकी व्याख्या की जाती है।
जैसे -
भाद्रपद और आश्विन को --'वर्षा '
कार्तिक और मार्गशीर्ष को --'शरद '
पौष और माघ को --'हेमंत '
फाल्गुन और चैत्र को --'वसन्त '
वैशाख और ज्येष्ठ को --'ग्रीष्म '
आषाढ़ और श्रावण को --'प्रवर्ट '
कहते है।
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