ऋतुचर्या / Regimen of Six Seasons

ऋतुचर्या / Regimen of Six Seasons 

ritucharya-six-seasons


हेमंत ऋतुचर्या (Regimen Of Winter Season )


हेमंत ऋतु में  शीतलता अधिक रहती है इसलिए शीतल वायु के स्पर्श से अंदर की अग्नि के रुक जाने के कारण बलवान पुरुष के शरीर में जठराग्नि बलवान (Increase ) होकर गुरु आहार (Havey Food ) को पचने में समर्थ रहती है। 
यहाँ हेमंत का मतलब शीत है। हेमंत स्वभावतः ( Naturally ) शीत होता है, हेमंत ऋतु में शीत पड़ने पर ही बलवान पुरुषों की अग्नि बढ़ती है अगर ऋतुवेकारिक भाव उत्पन होने पर हेमंत में शीत न पड़े तो अग्नि प्रबल नहीं होती। अग्नि के प्रबल होने में शीतस्पर्श या ठण्डी वायु से अग्नि का बाहर न निकलना यह  कारण बताया गया है।  
जैसे आवा के ऊपरी भाग पर मिटटी और जल से लेप कर देते पर आग की लपटे भीतर की और घुस जाती है और भीतर आग प्रबल हो जाती है वैसे ही हेमंत ऋतू में वातावरण शीतल होने से शरीर की ऊष्मा बाहर न निकल कर भीतर चली जाती है और जठराग्नि प्रबल हो जाती है।  इसलिए शालि , षष्टिक आदि मात्रागुरु और  पीठी , इक्षुविकार , क्षीरविकार , उड़द , भैंस का दूध , सूअर का मांस आदि स्वभावतः गुरु द्रव्यों का पाचन उचित रूप से हो जाता है।  

हेमंत ऋतु में वायु का प्रकोप -

इस प्रकार अग्नि के प्रबल होने पर जब उसके बल के अनुसार गुरु आहार नहीं मिलता तब अग्नि शरीर में उत्पन प्रथम धातु (रस ) को जला डालती है अतः वायु का प्रकोप हो जाता है। 
अग्नि का स्वाभाव है की पहले इन्धन रूप आहार को , आहार ने होने के कारण दोषो को , दोषो के अभाव में धातुओं को और धातुओं के आभाव में प्राणो को पचाती है। जब रस तथा उसके बाद क्रमशः रक्तादि धातुओं का पाक होने लगता है तब धातुक्ष के कारण शरीर में रुक्षता आने लगती है।  क्योंकि बाहरी वातावरण भी शीतल रहता है अतः स्वभावतः रुक्ष और शीतल वायु प्रकुपित हो जाती है। 

हेमंत ऋतु में आहार -

हेमंत ऋतु में अग्नि की प्रबलता रहती है अतः स्निग्ध पदार्थो अमल रस , लवण रस , औदक मांस , आनूप मांस, बिलों में रहने वाले जीवो का मांस , बाज , कौआ आदि का भुना हुआ मांस खाकर मदिरा (Alcohol ) , शीधु और मधु पीना चाहिए।  हेमंत ऋतु में दूध के विकरमात्र (दही , मलाई , राबड़ी , छेना आदि ) ईख के विकार ( गुड़ , राब , चीनी , मिश्री, आदि ) , वसा , तेल , नये चावलों का भात और गरम जल का सेवन करने से आयु की हानि नहीं होती। 

हेमंत ऋतु में विहार - 

तेल का अभ्यंग (मालिश ), उत्सादन (उबटन ) , शिर पर तेल लगाना , जेनतकसवेद का सेवन , धूमसेवन , उष्ण ग्रह में रहना ,वाहन , शयन और आसन को कपडे के परदे आदि से ढकना तथा उन पर रुई से बने भरी वस्र सुखकारी रोम वाले रेशमी वस्र ऊनि रंग बिरंगे कम्बल बिछाकर बैठना चाहिए , शरीर पर भरी और गरम वस्र धारण करना, घिसे हुए अगर का शरीर पर गाढ़ा लेप लगाना , विशाल स्तनों तथा अगर से पुते हुए अंगो वाली स्वस्थ मदमाती नारी का आलिंगन करके सोना तथा मैथुन करना ये सब शीत ऋतु में हितकारक विहार हैं। हेमंत ऋतु में वात का प्रकोप रहता है तथा वातावरण शीतल रहता है अतः शीत से बचने का पूरा पर्यतन करना चाहिए।  मैथुन अपनी शक्ति के अनुसार ही करना चाहिए। 


हेमंत ऋतु में वर्जनीय आहार विहार -

शीतकाल आ जाने पर वातवर्धक एवं लघु अन्न-पान , तीव्र वायु , कम तथा नपा-तुला भोजन नहीं करना चाहिए। 
ritucharya-six-seasons


शिशिर ऋतुचर्या (Regimen Of Dewy Season )


सामान्य रूप से हेमंत और शिशिर ऋतु दोनों समान होती है किन्तु शिशिर में कुछ थोड़ी विशेषता होती है।  आदान काल होने से शिशिर ऋतु में रुक्षता आ जाती है तथा मेघ , वायु , और वर्षा के कारण विशेष शीत पड़ने लगती है।  अतः शिशिर ऋतु में भी हेमंत ऋतु की ही तरह सब विधियों का पालन करना चाहिए। विशेष रूप से निवात (जहा वायु न हो ) स्थान में निवास करना चाहिए। 
तात्पर्य यह है की हेमंत ऋतु में विसर्ग काल रहता है अतः स्निग्धता अधिक रहती है।  शिशिर ऋतु में आदान काल आ जाने से रुक्षता बढ़ जाती है।  सुश्रुत और वाग्भट का भी यही कहना है। 

शिशिर ऋतु में वर्ज्य आहार -

शिशिर ऋतु में कटु-तिक्त -कषाय रस  तथा वातवर्धक , हलके और शीतल अन्न का त्याग-त्याग कर देना चाहिए। 
ritucharya-six-seasons


वसंत ऋतुचर्या (Regimen Of Spring Season)


हेमंत ऋतु में संचित हुआ कफ वसंत ऋतु में सूर्य की किरणों से द्रवीभूत होकर जठराग्नि को मन्द कर देता है अतः अनेक प्रकार के
 रोग उत्पन हो जाते है। उस संचित कफ को दूर करने के लिए वसंत ऋतु में वामन आदि पंचकर्म करने चाहिए।

वसंत ऋतु में त्याज्य आहार विहार -

वसंत ऋतु में गुरु,अमल, स्निग्ध और मधुर आहार तथा दिन में शयन नहीं करना चाहिए।

वसंत ऋतु में सेवनीय आहार विहार -

वसंत ऋतु में व्यायाम (exercise) , उबटन, धूमपान, कवाल ग्रह, अंजन तथा मल मूत्र त्याग के बाद गुनगुने जल का प्रयोग करना चाहिए , जो - गेहूं, खरगोश, कला हिरन, लावा, बटेर और सफेद तीतर के मांस का सेवन, निर्गद (दोषरहित) , सीधु और माध्विक (मधु निर्मित माघ) का पान तथा स्त्रियों और उपवानो के यौवन (कुसुमित अवस्था) का अनुभव करना चाहिए।
जो गेहूं प्राय मधुर रस वाले होते है और इनका सेवन वसंत में निषिद्ध किया गया है अतः जो गेहूं पुराने लेने चाहिए । पुराने जो गेहूं मधुर होते हुए भी कफकारक नहीं होते, वागभट ने वसंत ऋतु में शब्दतः पुराने गेहूं व चावल का सेवन करने का विधान किया है , स्त्रियों की युवावस्था और पुष्प वाटिका के पुष्पों का अनुभव करना चाहिए , यह कहने का मतलब चक्रपाणी के अनुसार यह है कि इनका सेवन अधिक नहीं करना चाहिए । केवल उतनी ही मात्रा में इनका सेवन करना चाहिए जिससे कफ का क्षय हो जाय।

ग्रीष्म ऋतुचार्य (Regimen Of Summer Season)

ritucharya-six-seasons


ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा संसार के स्नेह को सोख लेता है अतः इस काल में मधुर रस तथा शीत वीर्य वाले द्रव्य, द्रव तथा स्निग्घ अन्ना पान , चीन के साथ शीतल मंथ, (घी, सत्तू एवम शीतल जल का नातिसंद्र मिश्रण ) जांगल पशु पक्षियों के मांस का रस, घी , दूध , चावल इनका सेवन करने से स्वाभाविक बाल का नाश नहीं होता। सत्तू को शीतल जल में घृत मिलाकर इस पारकर घोले की न अधिक पतला हो पाए और न अधिक गाढ़ा । इसे ही मंथ कहते है।

ग्रीष्म ऋतु में वर्जय आहार विहार -

ग्रीष्म ऋतु में मदिरा का सेवन अल्प मात्रा में करना चाहिए अथवा नहीं ही पीना चाहिए या अधिक जल मिलाकर पीना चाहिए। लवण , अमल तथा कटु रस वाले और उष्ण वीर्य द्रव्यों का सेवन तथा व्यायाम नहीं करना चाहिए।
ग्रीष्म ऋतु में अमल और उष्ण होने के कारण मदिरा का सेवन शरीर के लिए हानिकारक होता है।
ग्रीष्म ऋतु में अमल और उष्ण होने के कारण मदिरा का सेवन शरीर के लिए हानिकारक होता है , अतः नहीं पीना चाहिए किन्तु नित्य मदिरा पीने वाले अथवा वात कफ प्रकृति वाले को अल्प मात्रा में पीना चाहिए किससे कफ का क्षय होता रहे।  सदा मदिरा पीने वाले यदि कफ पित्त प्रकर्ति का हो तो ग्रीष्म ऋतु में उसे अधिक जल मिलकर मदिरा का सेवन करना चाहिए।  ग्रीष्मऋतु में मदिरा सेवन का प्रधान रूप से निषेद्य किया गया है परन्तु सदा पीने वाले अभ्यस्त व्यक्ति के लिए नियम भी बता दिया गया है, अन्यथा उन्हें हानि होती है.

ग्रीष्मऋतु में विहार -

ग्रीष्म ऋतु में दिन के समय शीतल कमरे (Air Conditioned cold room ) में तथा रात्रि के समय चांदनी से शीतल हुए हवादार छत पर शरीर पर चन्दन का लेप लगाकर सोना चाहिए , मोती मणि आदि से शरीर अलंकृत करके चन्दन मिले जल से ठण्डे किये हुए पंखे की हवा और कोमल हाथो का स्पर्श प्राप्त करते हुए आसन पर बैठना चाहिए तथा सीतल जल और शीतल पुष्पों का सेवन करना चाहिए किन्तु मैथुन से बचे रहना चाहिए। 
हेमंत तथा शिशिर ऋतु में उष्ण गर्भगृह के तथा ग्रीष्म ऋतु में शीतगृह के वर्णन से प्राप्त होता है कि शीत ताप नियंत्रण (Air Conditioner ) का किसी न किसी रूप में उस समय भी प्रयोग होता रहा होगा। 

वर्षा ऋतुचर्या (Regimen Of  Rainy Season )

ritucharya-six-seasons


आदानकाल में मनुष्यों का शरीर अत्यंत दुर्बल रहता है।  दुर्बल शरीर में एक तो जठराग्नि दुर्बल होती है , वर्षा ऋतु आ जाने पर दूषित वातादि दोषों से दुष्ट जठराग्नि और भी दुर्बल हो जाती है। इस ऋतु में भूमि से वाष्प (भाप ) निकलने , आकाश से जल बरसने तथा जल का अमल विपाक होने के कारण जब अग्नि का बल अत्यंत क्षीण हो जाता है तब वातादि दोष कुपित हो जाते है।  अतः वर्षा काल  में साधारण रूप से सभी नियमो का पालन करना चाहिए। 
साधारण नियम का तात्पर्य त्रिदोष नाशक वस्तुओ के सेवन से है।  वाग्भट ने साधारण द्रव्यों के साथ साथ अग्नि दीपक द्रव्यों का सेवन भी उचित बताया है।  वर्षाऋतु में वातादि तीनो दोषों के कुपित होने का तात्पर्य यह है कि प्रधान रूप से वात कुपित होता है किन्तु अनुबंध सवरूप पित्त और कफ भी प्रकुपित हो जाता है। 

वर्षाऋतु में वर्ज्य आहार विहार -

वर्षाऋतु में उदमन्थ (जल में घुला हुआ सत्तू ), दिन में सोना , ओस गिरते समय उसमें बैठना या घूमना , नदी का जल , व्यायाम (Exercise ), धुप में बैठना और मैथुन (Sexual Indulgence ) छोड़ देना चाहिए। 

वर्षाऋतु में सेवनीय आहार विहार -

इस ऋतु में खाने पीने की सभी चीजें बनाते समय उनमे मधु अवश्य मेला लेना चाहिए।  वात और वर्षा से भरे हुए उन विशेष शीतवाले दिनों में अम्ल तथा लवण रस वाले और स्नेह द्रव्यों (घृतादि ) की प्रधानता भोजन में रेहनी चाहिए।  जठराग्नि की रक्षा चाहने वाले पुरुषों को भोजन में पुराने जों गेहू और चावल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।  मांसाहारी व्यक्तियों को इन आहार द्रव्यों को जांगल पशु पक्षियों के संस्कृत मांसरस के साथ तथा शाकाहारी व्यक्तियों को संस्कृत मूँग के यूष के साथ लेना चाहिए।  इस ऋतु में मधु मिला कर अल्प मात्रा में महुए के मध , अरिष्ट एवं जल का सेवन करना चाहिए।  वर्षाऋतु में आकाश का जल , गरम करके शीतल किया हुआ जल , कूप का या सरोवर का जल पीना चाहिए।  शरीर का घर्षण , उबटन , स्नान , चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग और सुगन्धित पुष्प मालाओं का धारण करना हितकारी होता है।  हलके और पवित्र वस्त्र धारण करना और कलेदरहित (सूखे ) स्थान पर रहना चाहिए। 
वर्षाकाल में अन्न पान में मधु मिला कर प्रयोग करने को कहा गया है परन्तु मधु मधुररस प्रधान होते हुए शीतल और लघु होने से अल्प वात वर्धक होता है। वर्षाकाल में स्वभाविक रूप से वात  का प्रकोप होता है अतः  मधु के सेवन से तो विशेष रूप से वात का प्रकोप ही होगा , तब उसका प्रयोग क्यों किया जाय , इस शंका का समाधान चक्रपाणि ने इस प्रकार किया है कि मधु वर्षाऋतु में उत्पन क्लेद का शमन करता है अतः थोड़ी मात्रा में सेवन करने से कोई हानि नहीं है।  

शरद ऋतुचर्या (Regimen Of  Beginning Of Autumn Season )

ritucharya-six-seasons


शरद ऋतु में पित्त का प्रकोप -

वर्षा काल में जिसको शीत साम्य हो गया हो ऐसे लोगो के अंग सहसा सूर्य की पखर किरणों से तप्त हो जाते है, जिसके कारण वर्षा ऋतु में संचित हुआ पित्त शरदऋतु में प्रकुपित हो जाता है। 

शरद ऋतु में सेवनीय आहार - विहार -

अच्छी भूख लगने पर रस में  मधुर , गुण में लघु , वर्य में शीतल , कुछ तिक्त रसयुक्त एवं पित्त को शांत करने वाले अन्न पान का मात्रा पूर्वक सेवन करना चाहिए।  शरदऋतु में मांसाहारियों को लाव (बटेर ), गोरैया , हिरण , दुम्बा भेड़ , बारहसिंगा और खरगोश का मांस खाना चाहिए।  सामान्यतः सभी को चावल , जौ  और गेहूँ का सेवन करना चाहिए और कुष्टधिकार में बताये हुए तिक्त घृत का पान , विरेचन एवं रक्तमोक्षण चिकित्सा करनी चाहिए। 
अच्छी तरह भूख लगने पर खाने का तातपर्य यह है कि शरद ऋतु में स्वभावतः सबकी अग्नि मन्द रहती है क्योंकि पित्त बढ़ा रहता है।  पित्त की वृद्धि से अग्निमांध कैसे हो जाता है इस शंका पर  बताया गया है की वस्तुतः पित्त को निकलने का उत्तम उपाय विरेचन है और विरेचन के लिया उत्तम समय शरदऋतु ही बताया गया है।  शरदऋतु में स्वभावतः प्रतियेक प्राणी का रक्त उष्ण रहता है , अतः तिक्तघृत के पान से या तो उस दुष्ट रक्त को शुद्ध करना चाहिए अथवा विरेचन द्वारा उसका निर्हरण करना चाहिए।  इससे प्रायः रक्त शुद्धि हो जाती है।  यदि इतने से भी रक्त शुद्ध न हो तो रक्त का मोक्षण करा देना चाहिए। 

शरदऋतु में त्याज्य आहार विहार -

धूप का सेवन , वसा , ओस , ोोदक मांस (मछली आदि ) अनूप मांस (सूअर आदि ) का , क्षार दही का सेवन और दिन में सोना एवं पूर्वी वायु का सेवन नहीं करना चाहिए। पूर्वी हवा बंगाल की कड़ी से उठने के कारण नमी लिए रहती है।  इसके सेवन से पुराने संधिवात (Arthritis ) इत्यादि व्याधियां पुनः प्रकुपित हो जाती है अतएव  इसका सेवन निषिद्ध बताया गया है। 

शरदऋतु में अनुकूल विहार -

इस ऋतू में उतन्न फूलों की माला , स्वच्छ वस्त्र और प्रदोष काल में चन्द्रमा की किरणों का सेवन हितकर बताया गया है।  
रात्रि के प्रारंभ को प्रदोष नाम दिया गया है।  इस समय फूलों की मालाएं एवं स्वच्छ वस्त्र धारण करना तथा चांदनी में बैठना चाहिए।  चक्रपाणि के मतानुसार रात्रि में चंद्रकिरणो का सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे शीत लगने का भय रहता है। 

इस प्रकार षडऋतुचर्या का उपदेश किया गया है।  एक ऋतू के समाप्ति काल और दूसरी के प्रारम्भ काल में किस प्रकार पूर्वऋतु के नियमों को छोड़ना तथा उत्तर ऋतु  के नियमो को ग्रहण करना चाहिए , इस विषय पर यहाँ प्रकाश नहीं डाला गया है किन्तु वाग्भट ने इस विषय का स्पष्ट विवेचन किया है।  अर्थात एक ऋतु के अंत के सात दिन और दूसरी के ऋतू के प्रारम्भ के सात दिन , इन चौदह दिनों का नाम 'ऋतुसन्धि ' है। एक ऋतु के अंतिम सात दिनों में क्रमसः उस ऋतु के नियमों का त्याग करते हुए आने वाली ऋतु के प्रारम्भ के सात दिनों में पूर्व त्याग तथा अग्रिम ऋतु के सेवनीय आहार - विहार को इन चौदह दिनों में क्रमश धीरे धीरे सेवन करना चाहिए।  अन्यथा ( सहसा नियमो का त्याग और परिशीलन करने से ) असात्म्यज रोग उत्पन होते है। 

No comments:

If any doubt let me know ....
If u need any book, notes ,video, plz comment ..
Any suggestions so contact me...
Or join our WhatsApps group in social plugin
🤗Happy learning...,🤗

Powered by Blogger.