शंखपुष्पी (Convolvulus pluricaulis)

शंखपुष्पी(Convolvulus pluricaulis)

convolvulus-pluricaulis-shankh-pushpi

कुल- तिवृत्कुल (कनवाल्वुलेसी-Convolvulaceae)
नाम-ल०-कनवॉल्वुलस प्लुरिकालिस (Convolvulus pluricaulis Chois)

सं०-शंखपुष्पी (शंख के समान श्वेत या शंखाकृति पुष्प वाली), क्षीरपुष्पी ( दूध के समान श्वेत फूल वाली ) मांगल्यकुमुमा (जिसके पुष्पों के दर्शन से मंगल हो क्योंकि श्वेतवर्णं तथा शंख शंकुन कहे गये हैं ) ।
हि०-शंखाहुली ।

सवरूप -


इसका बहुवर्षीय प्रसरी क्षुप होता है जिसके काष्ठीय मूलस्तम्भ से अनेक अवनत एवं रोमश ४-१२ इन्च लम्बे काण्ड निकले होते हैं ।
पत्र- ०.५ - १.५ इन्च लम्बे, रेखाकार या निचले भाग में अभिप्रासवत् होते हैं ।
पुष्प- शखसदृष शवेतवर्ण या हलके गुलाबी, १-३ भागों में विभक्त पत्रकोणीय पुष्पदंड पर होते हैं । बहिर्दल रेखाकार-प्रासवत्- और रोमश तथा अन्तर्दल फनेल के आकार के बाहर रोमश होते हैं ।
फल- अण्डाका र, '१७- २ इन्च लम्बा होता है । मई से दिसम्बर
तक इसमें पुष्प और फल लगते हैं ।

उत्पत्तिस्थान-

यह समस्त भारत में विशेषतः पथरीले और परती मैदानों में उत्पन्न होती है ।

रासायनिक संघटन-

रासायनिक विश्लेषण से इसमें दो प्रकार के स्फटिकीय द्रब्य पाये गये हैं । शंखपुष्पीन नामक एक क्षाराभ भी पाया गया है ।

गुण-

विषाक-मधुर
गुण-स्निग्ध, पिचि्छल
बीर्व-गीत
रस-तिक्त
अभाच-मेध्य

कर्म-

शीतवीर्य होने से पित्त का शमन करती है । तिक्त रस के कारण कफ का भी शमन इससे होता है । इस प्रकार यह त्रिदोषहर विशेषतः वातपित्तशमन है । यह कुष्ठष्न और केशवर्धन है । यह मेध्य तथा मस्तिष्क और नाडियों बलप्रद है । मस्तिष्क का शामक एवं निद्राजनन भी है । तिक्त होने से यह दीपन और पाचन तथा पिच्छिल एवं मधुरविपाक होने से अनुलोमन है । यह हृदय के लिए बल्य एवं शीतवीरये होने से रक्तस्तम्भन है। रक्तगत वात का शामक होने से रक्तभार को कम करती है।तिक्त एवं स्निग्ध होने से कफनिःसारक और इसके कारण स्वर को ठीक करती है। शीतवीर्य होने से यह मूत्रविरेचनीय है। पिच्छिल गुण एवं मधुरविपाक होने के कारणयह वृष्य और प्रजास्थापन है । शीतवीर्य होने से यह दाह एव दाह-प्रधान ज्वर को शान्त करती है। इससे शरीर एवं मन के दोषों की शान्ति, धातुओं की वृद्धि एवं मलों का संशोधन होता है, अतः यह रसायन और बल्य है ।

प्रयोग-

त्रिदोषज विकारों विशेषतः वातरपैत्तिक विकारों में इसका प्रयोग किया जाता है । बाह्य-वर्मरोगों में इसका लेप किया जाता है तथा केश- वृद्धि के लिए इससे सिद्ध तैल का प्रयोग करते हैं । मेध्य होने के कारण इसे मस्तिष्क दौर्बल्य एवं तज्जनित रोगों में प्रयोग करते हैं । उन्माद, अपस्मार, अनिद्रा एव भ्रम रागा में
इसका प्रयोग बहुलता से होता है। शामक प्रभाव के कारण उन्माद की उग्रावस्था में देने से उसकी तीव्रता शान्त हो जाती है और धीरे-धीरे विकार शान्त हो जाता है। अनिद्रा में भी इसका प्रयोग होता है । दीपन और पाचन होने से यह अग्निमांद्य को दूर करती है तथा वातशामक होने से उदर के आनाह, गुल्म, अशं आदि वातप्रधान विकारों में। लाभकर होती है । यह अनुलोमन भी है जिससे अन्त्रगत विष बाहर निकलता है।
और विवन्ध दूर होता है हृद्य होने से हुद्रोगों में प्रयोग होता है और रक्तस्तम्भन होने । से रक्तपित्त में लाभ करती है । ऐन्सली का कथन है कि यह रक्तवमन (Hacmetemesis ) के लिये अद्वितीय औषध है । रक्तभाराधिक्य में भी यह उपयोगी पाया गया है ।

सात्मीकरण-

सामान्य दौर्बल्य में बलकवृद्धि एवं रसायन -कर्म के लिए इसका सेवन करते हैं ।

प्रयोज्य अंग-

पञ्चांग ।

मात्रा-

कल्क-१०-२० ग्रा ० ।

वक्तव्य-

इसका प्रयोग विशेषतः कल्क या पानक के रूप में करते हैं ।

विशिष्ट योग-

शंखपुष्पी-पानक, मेध्य कषाय ।

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